एक रोज ...
एक रोज ...
एक रोज तुम्हारे कांधे पे रखके
मैं शाम, कोई अपनी भूल गया
थकी हुई सी , बिखरी सी
एकाकी पन में लिपटी सी
मैं शाम , कोई अपनी भूल गया
पथ लौटे, पंछी लौटे
जो गए थे सारे ,लौट आये
बस वो शाम कभी लौटी ही नहीं
जो पास तुम्हारे छोड़ गया
एक रोज तुम्हारे कांधे पे रखके
मैं शाम ,कोई अपनी भूल गया ..