यथार्थ
यथार्थ
पर्वत कितने भी करीब हो जाए
क्षितिज के, वो बस लौट आता है,
धरा की गोद में, हर दिवस
सूरज का प्रकाश लिये,
उतर आता है,
पगडंडियों से नीचे, साँझ ढ़ले
मिट्टी की क्यारियों में, खुद को सोखने
बादलों के रथ को छोड़कर,
उसे पता है,
ऊंचाइयां सदैव स्थिर नहीं रहती।