यथार्थ...
यथार्थ...
1 min
344
पर्वत कितने भी करीब हो जाए
क्षितिज के, वो बस लौट आता है ,
धरा की गोद में , हर दिवस
सूरज का प्रकाश लिये ,
उतर आता है ,
पगडंडियों से नीचे ,साँझ ढ़ले
मिट्टी की क्यारियों में, खुद को सोखने
बादलों के रथ को छोड़कर ,
उसे पता है ,
ऊंचाइयां सदैव स्थिर नहीं रहतीं।