एक कथा: माँ सीता (लव-कुश भाग -3)
एक कथा: माँ सीता (लव-कुश भाग -3)
शब्दों के गहन जाल में,
लव कुश को राम ने बाँध लिया,
राज धर्म कर्तव्य समां कुछ,
भारी शब्दों से काम लिया,
राम तो बस चले गए,
पर लव कुश को संतोष नहीं था,
आश्रम में आकर माता से,
वही प्रश्न फिर पूछ लिया,
माता क्यों श्रीराम ने,
सिय को वन में भेजा था,
जिसे स्वयं मानते थे पवित्र वो,
क्यों नहीं उन्हें तब रोका था,
सिय ने बच्चों को समझाया,
वो था उनका राज धर्म,
जो सब रिश्तों से ऊपर होता है,
सर्वश्रेष्ठ वही राजा है जो
सदैव निभाता अपना कर्म,
पर लव कुश ना संतुष्ट हुए,
राम के प्रति वे रोष दिखाते थे,
अपने आराध्य के प्रति ऐसे शब्द,
सिया से सहे नहीं अब जाते थे,
आँखों में अश्रु उतर आए,
कहने लगी क्रोधित होकर,
तुम जिसे कोसते हो बच्चों,
वही राम तुम्हारे पिता पूज्यवर,
मैं ही वो सीता हूँ जिसको,
राम से वनवास मिला,
पर सौभाग्य ये मेरा है सुन लो,
कि मुझे राम का साथ मिला,
आश्चर्य में लव कुश माँ के,
आंसू पोंछ गले लगाते थे,
माँ को उसका खोया सम्मान दिलाने का,
संकल्प दोनों ही मन में दोहराते थे...