एक किनारा हूँ
एक किनारा हूँ
जीवन के एकाकी तट का, एक किनारा हूँ।
योगी हूँ या एक भटकता, मैं बंजारा हूँ।।
टूटे-फूटे... कुछ सपनों की, गठरी ले चलता।
उम्मीदों से ठोकर खाता, हाथों को मलता।
प्यास बुझाऊँ भी तो कैसे, सागर खारा हूँ...
जीवन के एकाकी----------------
सूनी आंखों... की खातिर मैं, जल जाऊँ तो क्या...??
कुछ कलियों के... लिए रात सा, ढल जाऊँ तो क्या..??
देता कैसे क्या इनको मैं, व्यर्थ सहारा हूँ...
जीवन के एकाकी...............
खुशियों को तो... त्याग चुका हूँ, एक निराशा हूँ।
फिर भी जिंदा अरमानों की, अंतिम आशा हूँ।
खुद से बिछड़ा.. खुद से हारा, टूटा तारा हूँ...
जीवन के एकाकी-------------