एक भिखारिन माँ
एक भिखारिन माँ
फटी हुई साड़ी में अपने दिल के टुकडे को छिपाये
भटक रही है दर बदर एक भिखारिन माँ
इस आस में की
कही से कुछ मिल जाये और में अपने
कलेजे के टुकड़े केउदर की पीड़ा जो भूख से बढ़ रही है
उसे शांत कर दुँ
पर हाय री नियति
ये दुनिया कितनी निष्ठुर है
सवेरे से सांझ हो गई पर उस
बदनसीब के हिस्से एक टुकड़ा तक न आया रोटी का
और अमीरो के घर रोटियां
कचरे के पात्रो में पड़ी थीक्योकि उनके कलेजो के टुकड़ो
को पसंद नही आई
खास उस रोटी का एक टुकड़ा उस भिखारिन को मिल जाता
तो उसके कलेजे के टुकड़े का पेट भर जाता।।
