–बचपन एक प्यारा स्वप्न
–बचपन एक प्यारा स्वप्न
आज अनायस ही बचपन यादें
आँखो में उभर आई
कितना क्षणिक होता है ये बचपन
कब छोटे से बड़े हो गये
मानो पलक झपकते ही
पर अब भी स्मृतियों में कैद है
वो निश्छल और भोला बचपन
जब खिलौनों को ही हकीकत
समझ लिया जाता था
वो कपड़े के गुड्डे-गुड़ियों का खेल
जिन्हें माँ बनाती थी अपने हाथों से
और बनाती थी उनके लिए
भांति-भांति के वस्त्र रंग-बिरंगे
उन खिलौनों में जीवन्तता का
आभास करना कितना सुखद था
पर समय की घड़ी कब रुकती है
घड़ी ने अपनी रफ्तार पकड़ी
और हम बड़े हो गए
जिंदगी की गाड़ी सरपट
दौड़ रही है पटरी पर अनवरत
और हमें याद आता है वो क्षण
जब हम माँ की गोद से उतर कर
सवार हुए गाड़ी में आगे बढ़ने के लिए
काश हम घड़ी की सुइयों को रोक पाते
और चले जाते लौटकर माँ की गोद में
एक बार फिर से जीने अपना बचपन।।
