नन्ही गिलहरी
नन्ही गिलहरी
रोज़-रोज़ शाम आकर मिलने लगी
बाग़ में वो नन्ही सी चंचल गिलहरी
उछलती फुदकती, करीब आकर
रोज़ फल लेकर,फिर भाग जाती
बहुत कोमल...आँखों के भाव कैसे
दोनों हाथों में ले खाती फल चाव से
बड़ी प्यारी लगती नन्ही गिलहरी
जब लहराती अपनी पूँछ घनेरी
बड़ी भाती है... चिर्प चिर्प आवाज़
करती जब होता खतरे का आभास
लगती है कितनी,गिलहरी तेज़ तर्रार
पल में दिखे,पल में हो जाती फरार
राम के आशीष से तीन धारियाँ पाकर
साधारण सी गिलहरी लगने लगी सुन्दर
बना लेती वृक्ष के कोटरों में घर द्वार
सजाती नन्ही गिलहरी छोटा सा संसार।
