एक औरत की बेबसी
एक औरत की बेबसी
एक औरत की बेबसी क्या कहिये।
हर रोज़ होता ज़माने में तमाशा कहिये।
दहेज के नाम देकर, निकाल दिया घर से।
पल में टूट गया एक पहाड़ सर पे।
दो साल की बच्ची लेकर कहाँ जाएगी।
आँसू क्या लहू भी ज़मीन पे नज़र आएगी।
सुनसान सड़क उसपे बारिश का सितम,
न कोई सहारा, न कोई हमदम।
एक कुटिया देख, बिलबिलाने लगी,
दूध बच्ची के ख़ातिर माँगने लगी।
मेहर रब की, जिसने उसपे उपकार किया।
एक पिता बन बेटी का सत्कार किया।
आख़िर कब तक इस तरह ज़ुल्म की
आँधी का वक़्क़ार देखेंगे
ख़ामोश रह कर तमाशा बार-बार देखेंगे।