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Nilofar Farooqui Tauseef

Tragedy

4  

Nilofar Farooqui Tauseef

Tragedy

कुँवारी माँ

कुँवारी माँ

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न माथे में सिंदूर, न मेहंदी रचाई।

न डोली उठी, न शहनाई आई।

अभागन मुझे कहती है दुनिया,

पाप की गठरी मैं बाँध लाई।


भूख के मारे तड़प रही थी,

अन्न के दाने को तरस रही थी,

रोटी के बदले, छीन ली आबरू,

जिस चौराहे मैं भटक रही थी।


उन दरिंदों ने, ख़ूब क़हर बरपाया,

इंसानियत को हवस की आग में जलाया,

चीख़ निकली फिर, एक ख़ामोशी छा गई,

बेहोशी में भी , उसे ज़रा रहम न आया।


टुकड़े-टुकड़े में बिखरी थी आबरू,

न जीने की चाहत न मरने की जुस्तजू,

समेटकर चुनर के दाग़, सोचने लगी,

दुनियावालों से कैसे हो पाऊँगी रूबरू।


समय का दोष था, या मेरे भाग्य के लेखा,

कलंकित बोल मुझे, सब ने किया अनदेखा,

बदनुमा दाग़ कहते हैं, इस कोख़ की ज़िंदगी को,

एक कुँवारी माँ की तड़प, किसी ने न देखा।

एक कुँवारी माँ की तड़प, किसी ने न देखा।


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