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Nilofar Farooqui Tauseef

Abstract Tragedy

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Nilofar Farooqui Tauseef

Abstract Tragedy

टूट गयी शाख़

टूट गयी शाख़

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टूट गयी है शाख़, पर टहनी पे नज़र है।

ऐसा ही दीवानों पे, मोहब्बत का असर है।


न जाने किस गुनाह की, मिल रही है सज़ा,

कोहराम मची थी जहाँ,अब सन्नाटों का शहर है।


नुमाइश हुई है इतनी, के क्या बताएँ किसी से हम,

पूछती है स्याही, क्या फिर कोई मौत की ख़बर है।


न तीर चली, न तलवार उठा, न पत्थर मारा किसी ने,

आजकल की तो बातें ही, लगती मीठी ज़हर है।


इंसान की सूरत में, छुपा है शैतान इस दुनिया में,

यूँहीं तो नहीं बरपा, क़ुदरत का ये क़हर है।


सिसकियों में ज़िन्दगी, फिर हर दिन तमाशा मौत का,

डूब गई है कितनी कश्तियाँ, न जाने कैसी लहर है।


मिल लिया करो हर किसी से मुस्कुरा कर नीलोफ़र,

चार दिन की है ज़िन्दगी यहाँ, मौत ही हमसफ़र है।


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