दस्तूर
दस्तूर


लंबी नहीं है राह इसकी, फकत मुश्किल जरूर है
चार दिन की जिंदगी में, किस बात का गुरूर है
ख्वाहिशों का मंजर, खत्म होता नहीं है क्यों जब
खाली हाथ जाना ही, इस जहान का दस्तूर है
खण्डहर बन गए है, जाने कितने ही महल
जो कभी किसी की, शान बयां करते थे
चल दिये दुनिया से, सब कुछ वो छोड़कर
दौलत पे अपनी जो, गुमान किया करते थे