वो
वो
वो बनकर मासूम
दरवाजे की ओर देखती है,
हर आने-जाने वाले से
अपना ही पता पूछती है।
मिलता नहीं कोई अपना
वो बेवजह लकीरों को देखती है,
सूना-सुना सा जहाँ सारा
वो दर्पण में खुशी ढूँढ़ती है।
मिटाती क्यों नहीं भ्रम सारा
जो दिन में भी सपन देखती है,
कभी उठती कभी गिरती
बनकर लहर साहिल से टकराती है।
परिधान बदल कर
वो हर बार आयना देखती है,
मैल मन की दीवारों पर छाया
और वो परिधानों में मैल ढूँढ़ती है।
जानकर खुद से ही अनजान
वक़्त से दूर दौड़ती है,
कल्पना के शिखर पर
अभिमान की कल्पना उभरती है।
और तिनका-तिनका सा बिखरा
अपना महल देखती है,
हकीकत से परे जीने का
अपना अंजाम देखती है।