समय की विडंबना
समय की विडंबना
समय की विडंबना किस तरह संजीदा हो गई है,
आज अपनी ही परछाइयां हमें डराती है।
पहले कितना सुकून था इस जिंदगी में,
अब चारों तरफ सिर्फ खौफनाक मंजर नजर आता है।
हर वक्त एक ऐसा डर सा महसूस होता है,
न जाने कब कौन सी घड़ी बर्बादी का मन्ज़र बन जाए।
समय का सितम अब सहा नहीं जाता,
अपने ही अपनों से दूर भागना चाहते हैं।
अब अपनी ही परछाइयों से हम दूर भागना चाहते हैं,
चारों तरफ चीख पुकार को सुनकर दिल में बहुत दर्द महसूस होता है।
पहले महफिले सजा करती थी, कहकहे लगा करते थे,
लेकिन आज भाग्य की कैसी विडंबना है।
कि हम अपने आप से ही डर रहे हैं
और मुंह छुपा कर घबरा कर भागना चाहते हैं।
