दर्पण
दर्पण
कर मन का फूल तुम्हें अर्पण
देखा हमने एक ऐसा दर्पण
जिसमें सुर्ख रंग बिखरे थे
और हम तेरे संग निखरे थे
हया झुकी पलकों में छुपी थी
कुछ बातें लबों पे रुकी थी
मन में एक हलचल मची थी
एहसासों की लहरें जो उमड़ी थी
कैसे कहूँ वो कैसी घड़ी थी
जब में दर्पण में सहमी खड़ी थी
परायों में अपनत्व तलाश रही थी
और अपनों से मैं पराई हो चली थी।