दरमियां किनारों के
दरमियां किनारों के
वो भी बेआवाज़ एक पुकार था,
हम ठहर गये, कई शख्स दिखे।
मगर इशारों को पूछने निकला,
नम आंखों में बूंदें अश्क दिखे।।
एक झोंका जो तेरी गली से गुज़र,
बह चला छू कर मेरी एहसासों को ।
बन्द आंखों ने पीना चाहा जी भर,
उन साँसों को जो सुबकते दिखे।।
ऐसे भी मंजर सामने होगा पता न था,
तुम गुज़र जाओ और मैं निहारता रहूँ ।
इतना ख़फ़ा ना तू थी ना ही मैं,
मगर वफ़ा में ये कैसी दरारें दिखे ।।
अब भी एक ही किनारे पे हैं हम,
फासला कुछ है दरमियाँ ज़रूर।
मगर रुकी है तू ठहरा सा हूँ मैं,
आते जाते कई नाव पतवार दिखे।।
किनारे दो हो सकते दरिया के मगर,
धार के नीचे भी कोई सतह होगा।
तुम इधर रहो या फ़िर उधर जाओ,
हम जुड़े हैं उन्हें दिखे या ना दिखे।।
