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ca. Ratan Kumar Agarwala

Tragedy

4  

ca. Ratan Kumar Agarwala

Tragedy

दरकती जमीं

दरकती जमीं

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हर तरफ है त्राहि त्राहि, हर तरफ है चीत्कार,

क्यूँ करते विनाश धरा का, धरती करे पुकार।

पेड़ दरक रहे, नदियाँ सूख रही, दरक रही जमीं,

क्यूँ कर दी बर्बाद धरा, किस बात की थी कमी।

 

बढ़ गई विश्व में गर्मी, नदी नाले सब सूख रहे,

पेड़ सारे कट रहे, कैसे माँ वसुंधरा यह सब सहे?

मनुज मनुज का रक्त पिपासु, मची है मारकाट,

लाशों के ढेर लग गए हैं, दिया जमीन को पाट।

 

पेड़ों को काट डाला बेरहमी से, जमीं हो रही बंजर,

चलाते हो कुल्हाड़ी जमीं पर, हो मानों कोई खंजर।

मिट गया पंछियों का आसरा, ख़त्म हो रहा जल,

ए इन्सान संभल जा जरा, वरना भयंकर होगा कल।

 

बारिश की बुंदे नहीं टपकती, धरती सूखती जा रही,

कट रहे हैं सारे जंगल व पेड़, जमीं भी दरकती जाए।

नहीं रही हरियाली अब तो, नहीं करे अब बादल राग,

बिन बारिश बंजर हुई धरा, कैसे खेले माँ अब फाग?

 

नदी में वो धार न रही, कलकल करती जलधार नहीं,

नावों की आवाजाही नहीं, हवा में उड़ती पतवार नहीं।

बादल भी सूख से गए, कहाँ करते हैं वे अठखेलियाँ,

गर्मी बढ़ी अब बागों में, कहाँ इठलाती हैं सहेलियां ?


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