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gyayak jain

Action Inspirational Tragedy

5.0  

gyayak jain

Action Inspirational Tragedy

कैद है शादिया-इस बार बटुआ नहीं

कैद है शादिया-इस बार बटुआ नहीं

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(कैद है शादिया-इस बार बटुआ नहीं आफ़ताब बनेगी)


कहीं मुस्कान की परछाई से छिपते छिपाते

सख़्शीयत बदल गयी है अनजाने

अब रूह का आलम ये है की

आदमी के बटुये सी औकात याद दिला दी जाती है।


तशरीफ़ का अंग सा समझ लिया गया उसको भी शायद

जिंदा लाश सी पड़ी रहती है, बंद दरबाजे में कहीं

ज़िस्म की तलब याद आती है जब भी,

ऐसे ही हर बार, लिटा दिया जाता है।


क्यूँ प्यासा है इंसान ज़िस्म की गर्मी का

हर चीख इंसानियत की भी सुरीली लगती है

किस कोख से जन्मा था, किस आँचल में पला-बढ़ा

क्यों बिस्तर पे उसे कोई भगनी-सुता नहीं दिखती।


मारा नहीं, मरा समझ पटक आये शादिया को भी उस दिन

होश आने पर महीनों बाद आसमान देखा था

हिम्मत जुटाके चल पड़ी वो आफ़ताब जलाने को

की फिर कोई शादिया न दबा दी जाए बटुआ समझ कर।


-ज्ञायक


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