"दर्द का उजाला"
"दर्द का उजाला"
मनुष्य जब तक दर्द से भागता है,
वह उसका पीछा करता है।
जब साहस से उसे अपनाते हैं,
तभी भीतर नई राह खुलती है।
यह पीड़ा केवल तन की नहीं,
मन और आत्मा की गहराई है।
इसके चरम पर पहुँचकर ही,
मिलती सच्ची परछाई है।
जब टूटा हुआ बिखरने लगता है,
तभी भीतर का द्वार खुलता है।
आँसू नहीं, घाव बोलते हैं,
और आत्मा मौन में ढलता है।
दर्द जब सीमा लाँघ जाता है,
भय भी अपनी पकड़ छोड़ देता है।
तभी सुनाई देती है एक ध्वनि—
"अब तू अकेला नहीं है।"
रिश्ते लगते रेत की मूरत,
झगड़े और क्रोध सब मिट जाते।
करुणा जन्म लेती है हृदय में,
और मौन में संगीत गूँज जाते।
दर्द ही शिक्षक बन जाता है,
भय ही पुल का रूप धरे।
और तुम अब तुम नहीं रहते,
एक नया अर्थ, नया शब्द उगते।
