दर्द-ए इश्क़
दर्द-ए इश्क़
दर्द बन जाओ की अब तो
आदत सी हो गई है तुम्हारी
सुकून मिलता है अगर
तो रातों में नींद नहीं आती
तुम्हारा ज़िक्र और
बेवफ़ाई का ज़िक्र ना हो
बात ख़्वाबों में हमको
बड़ा सताती
तुम्हारे इल्म के आगे
जहाँ मैं कुछ भी नहीं
इल्म के गुमान में
तुम्हारी हस्ती भी इतराती
चाँद तो यूँ ही बदली
में कहीं छुप जाता
तुम्हारी ज़ुल्फ क्यों चेहरे पर
नज़र आती
तुम्हारा ज़िक्र हो और
तुम ही पास ना हो
हमें तो मुफ़्त ही में
क़ज़ा मिल जाती
उनसे कहना कि
मुकम्मल कभी हो कर देखें
हमारे ज़िक्र भर से तो
बात बिगड़ जाती
जब से हम आपके हुए हैं
वफ़ा भी हमको नज़र
नहीं आती
घर में अगर कोई हो शख़्स तन्हा
तो चाँदनी भी घर जलाती
तो चाँदनी भी घर जलाती।