दर्द-ऐ-दास्ताँ
दर्द-ऐ-दास्ताँ
अलग हुए थे हम जिस पल , दिल का कोई एक कोना उस पल टूट सा गया था ,
ह्रदय-विदारक इस घटना ने टुकड़ों-टुकड़ों में करके कोमल मेरे ह्रदय को ,बिलखता, तड़पता छोड़ दिया था।
जो बिखरा हुआ था कई सालों से,उसका कतरा-कतरा, रेशा -रेशा छिटक-छिटक कर इधर-उधर यहाँ -वहाँ गिर गया था।
उस एक-एक टुकड़े के साथ एक आसूं भी छलक सा गया था ,
जो तुम्हें लगा केवल एक बूँद ,बिन बोले भी इस दर्द ए दास्ताँ के असंख्य राज़ों का पर्दाफाश कर गया था।
वाणी होती उसके पास तो बयां कर देता हाल-ऐ-दिल लफ़्ज़ों मेँ भी,
जो कश्मकश से गुज़रा हर पल ,पर सुना ना पाया अपना दर्द, अपनी कराहाती हुई चीखें किसी को कभी.
खंजर से चले थे सीने पर ,पर अब सोचती हूँ कि आखिर ऐसा हुआ ही क्यों था ?
जो अलग था दिल से पहले से ही , वो हमेशा के लिए ज़िन्दगी से अलग ही तो हुआ था।
रोज़ रोज़ की उसके संग जंग-ऐ-ज़िन्दगी में कैद हुए दिमाग और दिल इस कदर,
लुट गए, बर्बाद हो गए हम ,इस द्वन्द का हिस्सा बन कर।
चले थे जो कभी हमसफ़र बनने धीरे- धीरे आहिस्ता-आहिस्ता हमारे हर दर्द से महरूम हो गए ,
इलज़ाम लगाते-लगाते हर कदम, हर पल ,दिल से हमारे दूर ,बहुत दूर हो गए।
अलग हुए थे हम जिस पल , दिल का कोई एक कोना उस पल ना जाने क्यों टूट सा गया था ,
ह्रदय-विदारक इस घटना ने टुकड़ों-टुकड़ों में करके कोमल मेरे ह्रदय को ,बिलखता, तड़पता छोड़ दिया था।