दोषी
दोषी
कभी शब्दों के जाल में उलझाते हो,
कभी भावनाओं में।
कभी देवी बनाते हो,
कभी मुझे सिर्फ देह समझ रौंद जाते हो।
संदेह होने लगा है अपने ही अस्तित्व पर,
तुम अपनी आवश्यकता अनुसार,
मुझे रोज़ नए आकार में ढाल देते हो।
असमंजस की स्थिति में हूँ मैं,
ना तुम्हें समझ पा रही हूँ,
ना स्वयं को।
तुम्हारे इस मानसिक खेल में,
उलझती जा रही हूँ मैं।
देवी बनकर रहूँ या अबला,
दोनों ही परिस्थितियों में,
मैं तुम्हारे द्वारा छली जाती हूँ।
मैं अस्वीकार करती हूँ तुम्हारी सत्ता को,
अपनी सिसकती हुई मानसिकता को।
पहली बार छले जाने के लिए,
तुम्हें दोषी करार देती हूँ।
बार-बार छले जाने का दोष,
मैं अपने सर लेती हूँ।
हाँ, दोषी हूँ मैं,
तुम पर अपनी अंधश्रद्धा के लिए।
संस्कारों को, रीती-रिवाज़ों को
बिना तर्क स्वीकारने के लिए।
अपना सर्वस्व तुम्हारे हाथों सौंपने के लिए।
हाँ दोषी हूँ मैं, तुम्हें साहस का प्रतीक,
और खुद को कमजोर मानने के लिए।