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दो शब्द

दो शब्द

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"दो शब्द"

भी नहीं थे उसके पास,

मेरी कामयाबी पर,

जो नाकामयाबी पर,

पूरा ग्रंथ एक पढ़ता था।


मैं गिर जाती थी जब कभी,

वो ज़ोर-ज़ोर हँसता था,

वहीं मेरे संभलने पर,

वो छींटाकशी से

अपना पेट भरता था।


मैं झुँझला जाती थी

कभी-कभी,

आखिर हूँ तो मैं भी

एक इंसान ही,


मगर फिर अगले ही पल

मैं हँस देती,

ये सोच कि जन्मा है ये

इस पुरूष प्रधान समाज से ही।


बचपन में मैं तरसती थी,

कि पिता मेरे मुझ पर फक्र करेंगे,

मगर ना सुनाई दिये

जब मुझे वो "दो शब्द"


तब अपने जीते हुए

मैडल पर मेरे अश्रु गिरे थे।

अब पुत्र भी मेरा अपने

पिता की भाषा पढ़ता है।


उन "दो शब्दों" को कहने से

वो भी अब डरता है,

मैं भी अब अपनी कामयाबी को

इस दुनिया से छुपाती हूँ,


एक नाकामयाब इंसान बन उन

"दो शब्द" से घबराती हूँ।।


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