दिल की बस्ती
दिल की बस्ती
वो भी क्या दिन, क्या ज़माना था
तेरी गलियों में मेरा आना जाना था
सजा करता था चांँद तब मेरा दरीचे में
तेरी यादों का सुबह शाम ताना बाना था
कभी दरवाज़े की घंटी तो फेंके कभी कंकड़
वो किताबों, रिसाले तो बस एक बहाना था
तेरी फ़ुर्क़त मेरी जान लेती थी
तेरी कुर्बत का मैं दीवाना था
मैं तेरी हर बज़्म में परवाना था
तेरे दिल की बस्ती में मेरा ठिकाना था.

