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प्रीति प्रभा

Abstract

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प्रीति प्रभा

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गांँव

गांँव

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गांँव के चौपालों पर जब लोग आते हैं

अपने अपने दिल की बात सब सुनाते हैं

रिमझिम बारिश की फुहार मन को भाता है

बागों में डाले झूले भी सब के मन को लुभाता है 


बीता बचपन मेरा जिस गांँव में मन वहीं बसता है

सभी लोगों के बीच वहांँ अपनापन झलकता है

गांँव की झोपड़ी में जो सुकून मिलता है

शहर के घरों में पैसा कमाने का जुनून दिखता है 


गांँव में सब के घर कच्चे पर दिल के सभी सच्चे हैं

जीवन बीता जो गांँव में वो दिन ही बहुत अच्छे थे

गांँव की हरियाली, मिट्टी की खुशबू को दिल तरसता है

याद कर बीते दिनों को हर पल आंँखों से नीर बरसता है


वो गांँव का पोखड़, तालाब किनारे सांझ को घूमना

हटियाँ लगने का इंतजार कर हटियाँ पर जाकर चाट खाना

कच्ची सड़को पर पानी बहना काग़ज़ की नाव का उन पर तैरना

जाड़ों के मौसम में घर के द्वार पर बैठ आग का तापना 


बड़े बुजुर्गों से हर दिन किस्से कहानियों का सुनना

बारिश में भीग कर धूल मिट्टी में ही खेलते रहना

गांँव की गलियों में ही आज भी बसता मेरा मन है

शहर में आज सभी ख़ुश है ये तो केवल एक भ्रम है।


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