शहर
शहर


कैसा शहर है ये
किसी के सपनों को पल भर में तोड़ा
निशान ख़ूब बरबादियों का छोड़ा
रिश्ता है हैवानियत से जोड़ा
भटका किधर है ये अंधा कानून है
ख़ूब सजाया बहरूपियों ने मुखौटा
दिल और दिमाग़ में दीमक है खोटा
धन लेकर परायों के हाथों से है लौटा
ख़ूब कहर है लुच्चे लफंगों ने यहाँ मचाया
आता नहीं है करना नारी का सम्मान
जाता नहीं है दिल से किसी के अहंकार
जुबां पे ज़हर और हाथों में है खंजर
मायूसियों की उठती है जब लहर
कैसा शहर है ये
ख़ुदग़र्ज़ लोगों का ढोंगी ये नगर है
दहशत का माहौल शाम-ओ-सहर है
अपनों से रखता कोई नाता रिश्ता नहीं है
एक आँख कोई किसी को भाता नहीं है
बनना सबको सबका हितेशी मगर है