दिल का आलम
दिल का आलम
अब थक गए है ,
मोहब्बत से कारोबार करके,
सुकून ढूंढ रहे है किसी बहाने
दर्द दिल के पार करके,
इश्क को माना था
एक बुलंद हस्ती मैंने,
इबादत भी खुदा जितनी ही की,
मगर मत पूछो कितने इतरा रहे है सब,
सरेआम नफ़रत का बाजार करके,
वफ़ा ए ज़िंदगी नागवार गुजरी,
अब वक़्त काट रहे है कर्जदार बन के
इतनी मासूमियत से सजी है पलकें उनके,
जादू करता रुख़सार उनका,
बिखरे हवाओं को गुलजार करके,
हर अक्स को मिटा दिया मैंने,
रौशनी में घना अंधकार करके ,
तबाही का मंजर झेला है ऐसे,
किसी कश्ती का किनारा ना रहा,
उसको ज़मीन आसमान कह के,
किसी कहकशां में डूबा हूँ,
हर शौक बेपरवाह करके,
लफ़्जो से बयान करते है,
हर दहकती आग अपने दिल का,
अपनी कलम से कोरे कागज़ पे वार करके,
खोने पाने के दहलीज पे बैठे है,
कुछ यादों को उधार करके,
रोज टूटता उसकी बेवफाई की रुख समेट कर
सच झूठ का बेइंतहा फैसला करके,
आज फिर एक मेरी कलम अपने शब्दों से
बांध रही है उसका नाम,
उसके तमाम बेवफाईओं के नगमे याद करके ।