धरा माँ....।
धरा माँ....।
धरती पर किस लिये आये हो सुर,
भेजने वाले का नहीं है कोई कसूर,
ढका पड़ा है काली मिट्टी से वदन,
कुछ हद तक तो ठीक है धरा माँ का बदन,
धरा माँ......
इस मिट्टी में सोने -सोने का है कण,
अब बहुत हुआ आगाज इंसान तो बन,
बहुत खराब किया इसका पर्यावरण,
थोड़ी इसकी भी सोच रख अपना आवरण,
धरा माँ........
अथाह पड़ी है इस बेचारी की सीमा,
क्यों लगाते हो इस पर कलंक की लालिमा,
जब -जब हुआ युद्ध का आगाज यही बोली,
अरे वो शूरवीर थे जो चल पड़े मातृभूमि की लेकर झोली,
धरा माँ........
बहुत लगा इस पर कलंक किया सहन ,
पर कितने दिनों तक करती रहेगी वहन,
उस प्रताप ने हल्दी घाटी को बना दिया उसका नाम ,
दोष उस धरा का नहीं जिसमें जन्मे है राक्षस ,क्या आये काम
धरा माँ........
क्यों पीते हो इस माँ पर लगाकर कलंक का प्याला ,
थोड़ी अपनी भी रख सीमा कोई ना अभी है तू भोला डाला,
इतना होने के बाद भी करते हो अपना पतन,
चलो अब तो चेत जा कर ले जतन,
धरा माँ...... ।