सारे सपने हैं बच्चे अपने
सारे सपने हैं बच्चे अपने
दूरी है ग्यारह हज़ार, मगर बातें हैं ग्यारह करोड़,
आज मन करता है, वक्त को दूं पीछे को मोड़।
मेरा श्याम गया है, कुछ श्याम सा खोजने,
क्या जोडूं यादें उसकी, जो खुद हो बेजोड़।।
तभी तो मैं उसके चित्र भी नहीं मांगता,
रोज़ रोज़ कोई नई मूरत बनाई नहीं जाती।
बस याद आती है तो लिख लेता हूँ कविता,
मंदिर में बाल लेता हूँ दिया और बाती।।
आदत अब बदलने को कहता है ज़माना,
आदत क्या होती हैं किस्मत की लकीरें।
शायद अच्छी ही होती है आदत अपनों की,
किस्मत भरती है पानी, गर बात तो सपनों की।।
बड़े हों या छोटे, जो सच हो जायें,
वो सब अच्छे होते हैं सपने।
कोई कह पाए या न कह पाए,
माँ, बाप के लिए तो सारे सपने हैं बच्चे अपने।।