विवाह या व्यापार
विवाह या व्यापार
जन्म लिया तो सब रोये,
बोले अब तो हम सब खोए।
बड़ी हुई तो सब फिर रोये,
बोले अब तो हम दुगुना खोए।
विवाह सुना तो ऐसा लगा, जैसे जीवन का दाह हुआ,
रोमांच नहीं होता अब, नए जीवन नई रीति का,
क्योंकि फिर कोई ख़रीदा, तो कोई बेच गया होता है,
इंसान ने बहुत तरक्की कर ली - तो क्या, अगर इंसान की भी कीमत तय कर ली - तो क्या,
हर बाज़ार में बिकते हैं आज के शादी की उम्र के लड़के,
खरीदार होते हैं दुल्हन के घरवाले, बिकते हैं हर कोने कोने पे लड़के,
पर फिर भी वो बड़े और लड़की वाले छोटे होते हैं,
उन्हें झुक के रहना होता है, और उन्हें ! अकड़ के।
ये इस दास्ताँ का अंत नहीं, यहाँ से तो आरम्भ होता है,
जिंदगी की असली खरीद फरोख्त का तो यहाँ से प्रारंभ होता है।