नीले रंग सी
नीले रंग सी
अदृश्य कितनी जंजीरे लिपट गई है
मेरे पैरों से
इतनी जकड़न इतनी जकड़न.....
"मैं" छूट नहीं पाती हूँ
कभी इस भाव में कभी उस भाव में
संपूर्णता को तलाशती
वहाँ दूर तक जाती हूँ
क्षितिज के उस छोर तक
जहाँ हर पत्ता हर कतरा नीलिमा को छू रहा है
हाथ बढ़ाते ही जहाँ मैं भी भर सकूं
नीले अहसास से.......
टकरा कर रह जाऊंगी उससे
या वो मुझे समाहित कर सकेगा
खुद में
एकाकार होकर उससे
क्या मैं भी बह सकूंगी उस क्षितिज पर
नीले रंगों सी......