सपने और उम्मीद
सपने और उम्मीद
सपने और उम्मीद,
बस फर्क थोड़ा सा।
ओ मेरे समझदार मन
अब आगे बढ़ो न थोड़ा सा।।
तुलना करते करते लोग,
देखते हैं, झूठे सच्चे सपने।
उम्मीद करते हैं मेहनतकश,
काम से आगे बढ़े होते हैं अपने।।
कौन से खाने में हो मेरे यार,
ज़रा तुम भी सच सच बताना।
करते आये हो न अब तक,
ब
ड़े सपने देखने का बहाना।।
अब खुद लिखा है तो,
खुद ही भुगतो।
उम्मीद का दामन,
थामते हुए तो दिखो।।
फिर कहोगे कि हुआ नहीं
सब उम्मीद के मुताबिक
सपनों में तो डूबे रहते
सिर्फ नकली आशिक
जो सपने देखो,
वही करो उम्मीद
भरोसा रखो हाथों पर
बदलेगी तकदीर।