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Atul Shukla

Abstract

4.8  

Atul Shukla

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नशा

नशा

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धूप भी जिस्म को त पा न सके,

भटके इस तरह घर जा न सके,

दो पल भी आंख खोली नजर टीम टीमा गई,

 उजालों से एक पल नजर मिला ना सके,

भटके इस तरह घर जा ना सके,


 जाने कौन सी गली में घरौंदा है हमारा,

 गली तक पहुंचे पर दरवाजा खटखटा ना सके,

 यह नशा जीवन में समाया इस कदर,

 हम कौन हैं यह बता ना सके,


 भटके इस कदर घर जा ना सके,

 बताने वाले की भी नजर झुकी,

 जिन से नाता था हमारा,

 रिश्ते मगर खून के वह मिटा ना सके,


 सिमट कर रह गए नशे के शहर में इस कदर,

 चाह कर भी हम किसी को लुभा ना सके,

 घर जा ना सके खुद तो बिखर बिखर कर टूटे,

 और तोड़ दिए अपनो से इस तरह,


 की जीते जी हम किसी को हंसाना सके,

 जब गए इस जहां से तो मगरूर थे इतने,

 गैरों को तो क्या अपनों को भी रुला ना सके, 

 भटके इस तरह घर जा ना सके।


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