स्त्री-देह
स्त्री-देह
यूँ बदलती है एक देह
स्वयं को कई रूपों में !
सुबह जब वो देह रसोई में जाती है
घर के प्रत्येक देह की
क्षुधापूर्ति का करती है इंतजाम,
तो वह बन जाती है – अन्नपूर्णा
बच्चे को स्कूल बस में
बिठाकर जब हिलाती है हाथ
तो बन जाती है – प्रतीक्षारत माँ
आफिस पहुंचकर जब पलटती हैं फाइलें
तो बन जाती हैं – मशीन
लंच पर जब बदलती है
सब्जियों की कटोरी
तो हो जाती है – सखा
बसों में धक्के खाकर वापस,
रात को काम निपटाकर,
जब सोने जाती तो बदल जाती
बस एक मांस के लोथड़े में
क्या स्त्री-देह को ’मानव देह’
नसीब होगी ?
सुबह उठते ही भागती हूँ,
रसोई की ओर,
कुछ ही देर में घर के सब लोग
निकलेगें काम पर ,
क्या उन्हें भूखा जाने दे सकती हूँ ?
फिर अभी घर भी सवांरना है,
शाम को आयेगें कुछ मेहमान
क्या यूँ ही छोड़ दूँ घर ?
शाम व्यस्त होती है बहुत
बिटिया का बैग,
होमवर्क सब देखना है न !
फिर रात को क्या बनाना है
यह भी सोचती हूँ , शाम से
आखिर घर है मेरा
सब लोग दिन भर की थकान से
विश्राम लेने यहीं तो आयेगे
और कहाँ जायेगे ?
इतना कुछ कैसे हो पाता है, इस देह से
आखिर यह थकती क्यूँ नहीं ?
क्या इसलिए कि यह स्त्री-देह है ?
जी करता है,
सुबह की चाय आराम से पिउँ
साथ में हो अखबार
तसल्ली से उठूँ, नहाऊं जी भर कर
घर सजाऊं अपने ढंग से,
फोन का रिसीवर रख दूँ उठाकर,
सेलफोन कर दूँ ‘स्विचआफ’
लंच के बाद लूँ एक मीठी नींद
शाम को जाऊँ बाहर
पूछूँ अपने दोस्तों का हाल
कैसे हैं वो, क्या कर रहें हैं वो इन दिनों
रात को सोने से पहले पढूं
कुछ कवितायेँ या कोई कहानी
या सुनूँ ‘विविध भारती पर ‘आपकी फ़रमाइश’
क्या यह सब होगा मेरे साथ ?
किसी रोज ?
क्या यह संभव है ?
पर जब सोचा है तो होगा जरुर किसी रोज।