समन्व्य
समन्व्य
ए नदी तेरे रूप अनेक
जगत जननी यह जग जाने
पर मैं भी तुम्हारे जैसी,
मेरी महिमा सोच कोई ना बखाने
तुम्हारे नाम नहर, तटिनी,
प्रवाहिनी, क्षिप्रा,
मंदाकिनी गंगा जैसे
मेरे भी नाम यही
पर भ्रमित रहते
संसारी लोग नहीं जानते कैसे
मैं भी बूंदों का दरिया
तुम भी बूंदों का दरिया
तुम्हारी बूंद नजर नहीं आती,
मेरी बाहर ढलक आंसू बन जाती
जीवन भर सतत किसी ना किसी रूप में,
चलती रहती हूँ प्रवाहिनी
धीमी गति से दुखों को आंचल में
समेटे बहती बन मंदाकिनी
सुखों की सेज पर सरसराहट से दौड़ती,
क्षिप्रा बन बहती
दो पीढ़ियों के बीच पिसते राह सुझाते,
संभालते तटिनी बन बहती
भविष्य को बनाने में तन-मन बार
सरस्वती कहलाती
उठे तरंग, उमंग संग, अल्हड़ ढंग
तारिणी वन गंगा कहलाती
तुम हरती हो ताप
नर, पशु, पक्षी, वन,
जंगल को हरित बनाती
हरती हूं मैं ताप सभी के
रूप बदल सब की आशा बन जाती,
संतानों के लिए पालना
कभी रोटी, शीतल छाया हेतु वृक्ष बनी
बूंद बूंद तुम नदी बनी
छिपाने हेतु सभी के अवगुण
मैं भी नदी बनी
अंतर हम दोनों में बस इतना
तुम्हारी क्षमता विलक्षणता हर कोई जाने
तुम्हारे ना बहने से धरती बनती बंजर
बिछ जाता सूखे का मंजर
मतलब परस्त जग में
इस कल्पवृक्ष, आधार स्तंभ की,
महिमा कोई न जाने
हरती हूं ताप सभी के मैं रूप बदल बदल
सब की आशा बन जाती
मेरी परोपकारी परितृप्त, समर्पित
मेरी सत्यता से अनजान
मेरे छद्मवेश को ही सब जाने
सब जाने।
