धन
धन
अधिक से भी अधिक की चाह में
हम खोते जा रहे हैं अपना सुकून
भाग रहे हैं बेतहाशा धन के पीछे
और दूर होते जा रहे हैं घर से यूँ
कि अब लौट पाना भी कठिन है।
चंद सिक्के और कुछ कागज़ के टुकड़े
अब हो गए हैं बहुत महत्वपूर्ण
कि अब रिश्तों का मोल पाना कठिन है।
अब नहीं रहे वो बड़े परिवार जो
हर कठिनाई में साथ निभाते थे
अब सब घर को बाँट चुके हैं
अपने-अपने हिस्से ले चले गए हैं दूर
कि अब फिर एक हो पाना कठिन है।
इस धन की चाह में जाने कितने
अपना ईमान बेच बेईमान हो गए
गए तो थे जनता की सेवा करने पर
उनके ख़ुद के ढेरों देखो अब मकान हो गए
लालच की नदी में वो डूबे कुछ यूँ
कि उनके लिए अब तैर पाना भी कठिन है।
हम भाग रहे हैं बेतहाशा धन के पीछे
कि अब लौट पाना भी कठिन है।
