धिक्कार तुम्हें भी है
धिक्कार तुम्हें भी है
धिक्कार तुम्हें भी है
सिन्धु की सरिता ने अपना रुख मोड़ा है
बादलों को कर रुखसत तुमको आगाह किया है
सम्भल जाओ ओ भूमि पूत
कब तक तुम बहती गंगा का पान करोगे ?
घोलने वालो ने घोल दिया है
जहर नहीं, पर कुछ घोल दिया है
देखो मानव की तैरती लाशों को
सड़ने को यूँ कैसे छोड़ दिया है
ऐसे गिध्द भक्त शैतानो को
तुमने यूँ खुल्ला छोड़ दिया है
जिनको होना था सलाखों में
उनको कैसे तुमने शासन पर छोड़ दिया है ?
कब तब बंद करोगे तुम आखें अपनी
क्या तूने भी मानव रक्त पान किया है
क्या मन नहीं पिघलता तुम्हारा
सड़ती लाशों को ,
आवारा पशुओं को खाते देख
अब तो धिक्कार तुम्हें भी हैं !
क्या तुम मानव कहलाने के लायक हो
तेरा जीना भी अब क्या जीना है
तेरी इस करनी से मानवता तो शर्मिंदा है
अब तो लज्ज्ति आकाश हुआ है
पर किसको वो अपनी व्यथा सुनाये
रो - रो कर बे-मौसम, अपना हल कहा है |
ऐसे मानवों का भार कौन ढो सकता है
पर धरती ,तुझको यूँ माँ नहीं माना है
ऐसे महामानवों का भार लिए तू जो बैठी है
तभी तो ऐसे मतलबी इन्सान
फिर भी जिन्दा है
अब तो धिक्कार तुम्हें भी हैं
तू जो कैसी माँ है
अपनी कुपुत्रों के इस करनी पर
तू तो सिर्फ शर्मिंदा है।