देश की चिंता
देश की चिंता
बिका जा रहा देश
जश्न में हम डूबे हैं।
अच्छे दिन के पाले
अब भी मंसूबे हैं।।
काला आया नहीं
श्वेत भी स्वाह हो गया
रुपया-डालर बीच
सौतिया डाह हो गया।
बैंक छोड़, न रख सकते
घर में दो आने।
डूबे-उबरे बैंक
तुम्हारी किस्मत जाने!
बैंकिंग के अधिभारों से
जन-जन ऊबे हैं।
भेल, रेल व एअर
इंडिया फिसल गया
जीवन बीमा निगम
हाथ से निकल गया।
नाम सुधारों के
कृषी को लील रहे हैं
गाँधीजी के सपनों
को नित छील रहे हैं
भूखे-प्यासे सड़कों पर
पिटते सूबे हैं!
मँहगाई से त्राहि-त्राहि
जनता करती है
सच्चाई दिखलाने से
मीडिया डरती है
चीन-पाक तो थे
पहले ही शत्रु हमारे
पिद्दी सा नेपाल
खड़ा होकर ललकारे
लुटा जा रहा वतन
लुट रहीं मशरूबे हैं।
सत्य बोलने वाला
निकले राष्ट्र विरोधी
सचिव, वैद्य, गुरु
बैठे हैं सत्ता की गोदी
साम, दाम, भय, भेद
का फटके ऐसा कोड़ा
पाँच साल तक दौड़
न पाए रिपु का घोड़ा।
अंग्रेजों से भी
जालिम ‘अपने दूबे’ हैं।
