पचते न पर बैन
पचते न पर बैन
समय सिरफिरा
बड़ा भेदिया
रखना गुह्य सम्हाल
कान बढ़ाकर
सूँघ ही लेतीं
दीवारें जज्बात
नाकों तक
ले ही आता है
दुर्गंधों को वात
सभी उजागर
कर देता है
स्वतः मुखर हो राज
कभी-कभी को
हो जाता है
मौन बड़ा वाचाल
पैरा का कर पाँव
दौड़ता
शब्द सदा दिन रैन
पच जाता है
कंकड़-पत्थर
पचते न पर बैन
आँसू पी- पी
बन बैठा है
पर्वत हिमाधिराज
बहती सरिताएँ
कह देती हैं
खुद सारा हाल
कई जनों के
डसने से भी
आती नहीं लहर
मुँह से बाहर
कर देता पर
दुपहर सभी जहर
आँखें दर्पण
होती हैं सच
का प्रतिबिंब दिखातीं
रख देती हैं
उद्गारों को
गालों पर तत्काल।
