देखा एक ख्वाब
देखा एक ख्वाब
रोज रात को
नींद ले जाती है
मुझको
ख्वाबों के शहर में
गली- गली
डगर- डगर
बिखरे पड़े होते हैं:
ख्वाब सुनहरे- अनूठे
देखती हूँ---- उल्ट- पलट
शायद
मिल जाये,
कोई ख्वाब ऐसा _____
जिसकी हो जाए ताबीर
छूना चाहती हूँ---पर,
फिसल जाते हैं------
आँखों में बस कर
क्षण भर
दूर निकल जाते हैं
मिलता नहीं कोई ख्वाब ऐसा,
जो हो सके
सिर्फ और सिर्फ
मेरा,
लगा कर फेरा
ख्वाब- नगर का
लौट आती हूँ
यथार्थ की दुनिया में
सोचती सी-----
वो क्या था????
जो दिखा था केवल----- ख्वाब में
पर हो ना सका मेरा
करती हूँ----- प्रतीक्षा
अगली रात की----
कोशिश---- फिर से
ख्वाबों की नगरी में जाने की -----
नए ख्वाब
नई उम्मीदें
संजोने की
ख्वाबों के पूरा होने की
फिर फिर
नए ख्वाब देखने की।

