देह का तरल
देह का तरल
मौसम फिर से नमकीन हो गया
देह का तरल अर्थ हीन हो गया
तुम सामने क्या आये नज़र
जीवन व्यथा तर्कहीन हो गया
वेदना को वेद का आभास न रहा
पीड़ा हृदय को सालती रही
कुंठित हृदय दग्ध हो जला
संवेदना हो गई तिरोहित
पाषाण दिल रो पड़ा
बहने लगा अवसाद का लहु
आसमान रक्त रंजित हुआ
धरती के लाल का कपाल क्या खिला
मौसम फिर से नमकीन हो गया
देह का तरल अर्थ हीन हो गया
तुम सामने क्या आये नज़र
जीवन व्यथा तर्कहीन हो गया
आदमी से आदमी भयभीत हो रहा
जानवर को ले अंक में किलोल कर रहा
छुपता रहा था अब तलक
अब निर्वस्त्र हो रहा
खोकर हया विवन्ध के
सब बाँध दिए तोड़
क्षत्रिय ने सामने अरि के
गाण्डीव रख दिया
मौसम फिर से नमकीन हो गया
देह का तरल अर्थ हीन हो गया
तुम सामने क्या आये नज़र
जीवन व्यथा तर्कहीन हो गया।
