डरावनी दूसरी लहर
डरावनी दूसरी लहर
अभी पिछले ही साल की बात है
मंजर वो डरावने जहन में हैं बैठे
परिवार की खोई कई कई जानें
सिहर जाता उन यादों को समेटे
अस्पताल, डॉक्टर, ऑक्सीजन
एंबुलेंस, मुर्दघाट सब ही भुगता
एक नहीं अनेकों बार देखा मैंने
मरती हुई मानवता को सुलगता
ज़्यादा बताकर कलम को नहीं
बार बार करना चाहता शर्मसार
नेता, अफसर, छुटभैये सभी को
पूरा गिद्ध बने देखा था हर बार
डरावना सपना सच बनकर आया
कोरोना की दूसरी लहर थी भयंकर
कुछ लोग जो असली दोषी थे इसके
मौज करते दिखते, और भी लगता डर
बड़ी मुश्किल से संयत किया खुद को
डरावना शब्द सुना तो निकले गुबार
कविता लिखी तो लगा दिल में बचा है
कोई पढ़ेगा तो शायद उतरे ये बुखार।