ढूंढे से मिले न उसका ठाँव
ढूंढे से मिले न उसका ठाँव
नदी किनारे बसता था इक गाँव
अब ढूंढे से मिले न उसका ठाँव।
कलकल करती नदिया जो कल जो थी,
कभी सूखी तो कभी तट तोड़ है बहती।
इंसानों ने अपने- अपने मतलब यूँ साधे,
रूठी बेतवा, तापी, कोसी, गंगा, कावेरी ।
जल बिन पुश्तें कहो तो कैसे पनपेगी,
तुम को ही होगी जीवन जीने की दुश्वारी।
सुन लो मेरे आर्तनाद को ओ मूर्ख मानव
वरना धरती पर देखोगे हर ओर बेज़ारी।