दाने - दाने के मोहताज़
दाने - दाने के मोहताज़
भाँग पीकर शासन में बैठे चला रहें ये तथाकथित अधिकारीगण राज- काज !
सब कुछ होते हुए भी देश की हालत हो गई क्या आज?
विकास और बदलाव की लंबी डींगें हाँकते ये बेशर्म नेता आज !
तो फिर साहब! देश की एक बहुत बड़ी आबादी हाशिये पे क्यों है आज ?
क्यों न उन्हें मिल पा रहा पेटभर भी अनाज?
कहीं अनाज बोरी के बोरी सड़ रहा !
कोई दाने- दाने के लिए आज भी है मोहताज !
घर में कई दिनों तक चूल्हा न जला जब है ना दाना - पानी !
मगर अफसोस! अखबार के पन्नों छ्प रही रोज विकास की एक नई कहानी !
जहाँ पे निहायत तकाजा है पहुँच न रही उन तक उनकी आवाज।
क्यों बहरे बने हुए हैं ये सत्ता के सौदागर?
हद होती है बेशर्मी की भी न जाने कितने बेरहम हो गए हैं ये आज ???
