चुनाव
चुनाव
चुनावों का मौसम गरमागरम है
त्यागी सभी दलों ने लाज शर्म है
न गरिमा अपने पद की
न स्वाभिमान खोने की
सत्ता का नशा सर चढ़कर बोल
रहा है।
हर शख्स स्वयं को,
सत्ता रूपी
पलड़े में तौल रहा है
साम-दाम दंड भेद
सभी आज लगे दांव पर हैं।
कुर्सी नजाये या कुर्सी मिल जाये
सब ताने-बाने बुन रहे
इसी कदर हैं
जन-सेवक की दुहाई
सभी देते हैं।
कुर्सी मिलते ही तेवर
बदल लेते हैं
सबकी उंगलियां सामने
वाले कि ओर उठती हैं
पर अपनी ओर उठती
किसी को नहीं दिखती हैं।
मीडिया वाले मंच सजा देते हैं
प्रश्नों की माला नेताओं पे
चढ़ा देते हैं
किन्तु प्रश्न पूरब का पूछो
तो जवाब पश्चिम से आता है।
भूल अपना घर मंत्री
विरोधी के द्वार पहुँच जाता है
जनता पेट्रोल के पूछे नेता
आम के दाम बताते हैं।
अंतराष्ट्रीय बाजार का हाथ बता
जनता को फुसलाते हैं
कैसा प्रजातन्त्र जहां मानवता
शर्मसार है जाति-भेद वर्गभेद
आरक्षण का चमत्कार है।
हाय रे चुनाव तू क्यों आता है
सबके चेहरों पे चढ़ा
सभ्यता का मुखौटा उतर
जाता है, और जनता ?
किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाती है
वोट दे, न दें, किसे दें, क्यों दें ?