चिंगारी अब भी जीवित है
चिंगारी अब भी जीवित है
क्यों आवाज़ें गुम है कहीं
बेजुबान हुए हैं ज़ुबान वाले
क्यों ज़मीन में मीलों तक
गड़े हुए हैं अंजान इतने
क्या करें जिस्म का
जब रूह शरीर छोड़ गई हो
खुद के ही जाल में उलझ कर
चेतना भी मुख मोड़ गई हो
मुख मोड़ चुकी हैं अब फिज़ाएं
तेज़ हुई है तपिश धूप की
कलियाँ बाग़ की कुचल गई है
बदला है सृष्टि का स्वरूप भी
जी रहे हैं सब घुट घुट के
लम्हा लम्हा अब बोझिल है
ज़हरीला है सारा आलम
हर जन इसमें शामिल है
धरती का कोना कोना देखो
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धीमे धीमे पिघल रहा है
कलयुग ने मुख खोला है अपना
हौले हौले सब निगल रहा है
पर चिंगारी अब भी जीवित है
दिख रही है मानवता कहीं कहीं
पृथ्वी शायद इसीलिए टिकी हुई है
धर्म कर्म बचा है थोड़ा अभी भी
क्यों न फिर से एक नया सफर
हम सारे मिलकर शुरू करें
चिंतन करें, ऐसे युग का निर्माण करें
जन जन जिस पर सदा गुरूर करें
त्याग के गंदे विचार व् लोभ
अब भी मानवता गर अपना लें
जीवन में सद्गति आ जाये
उगेगा सवेरा नया बिन तृष्णा के.....