...छाई हुई ग़ज़लें
...छाई हुई ग़ज़लें
इक शोख़ तबस्सुम की रानाई हुई ग़ज़लें
दिल खोल के कह देना शरमाई हुई ग़ज़लें।
देखूँ मैं उसे जी भर ये मेरी तमन्ना थी
बदले में मिलीं मुझ को घबराई हुई ग़ज़लें।
हमने वो सुनाई हैं पढ़कर जो तुझे लिक्ख़ीं
शबनम की स्याही से इठलाई हुई ग़ज़लें।
नींदें न समझती हैं रातें न समझती हैं
ये प्यास बढ़ाती हैं अलसाई हुई ग़ज़लें।
बढ़ चढ़ के बताती हैं सब हाल मेरे दिल का
काग़ज़ पे उतर कर तो सौदाई हुई ग़ज़लें।
इक शम्स जलाई तो बाहर वो निकल आईं
थीं मोम के भीतर जो बिठलाई हुई ग़ज़लें।
झोंका सा जो आवारा कल रात चला आया
खिड़की से निकल भागीं बौराई हुई ग़ज़लें।
टूटे हुए ख़्वाबों की मानिंद सुबह खो दीं
शब भर जो समेटी थीं बिखराई हुई ग़ज़लें।
आँधी ही चली होगी सो ख़ूब उड़े काग़ज़
कमरे में जिधर देखो बस छाई हुई ग़ज़लें।
ए ख़्वाब ज़रा ठहरो मैं पहले इन्हें चुन लूँ
पलकों के किनारे पर कुछ आई हुई ग़ज़लें।
ज़ालिम की अदाओं पर ‘दीपक’ जो कही तुमने
महफ़िल को सजाती हैं वो गाई हुई ग़ज़लें।