चाँद और रोशनी
चाँद और रोशनी
चाँद तुम अधूरे हो,
घमंड किस बात का?
अपनी तो रौशनी भी नहीं,
प्रकाश भी उधार का।
ना देता सूरज
गर रौशनी तुमको,
अंधेरे में कैसे चमकते?
कैसे लुभाते महबूब को,
तुम्हारी आसमान में
चमक ना होती।
ना कोई महबूबा,
देख तुम्हें रोती।
ना कविताओं में होते,
ना शायर तुम पर लिखते,
हर रोज टुकड़ा टुकड़ा होते जाते हो,
अमावस्या को बिल्कुल खो जाते हो,
होते हुए भी नजर नहीं आते हो।
मैं नहीं चाहता तुम सा होना।
तुम्हारी तरह हर रोज जीवन खोना।
मुझे खुद की चमक करनी है,
अंधेरे में, नई रोशनी भरनी है,
असली के उजाले करने है,
खुशियों से दामन भरने है,
आज खड़ा हूँ सामने तुम्हारे,
कहता हूँ कभी कोई हिम्मत ना हारे,
अपनी ऊंचाई पर खुद ही जाना है,
अपनी मंजिल को खुद ही पाना है।