बस्ती ये जला दी किसने
बस्ती ये जला दी किसने
जिस्म से रूह को जाने की दुआ दी किसने।
मेरी हर आरज़ू मिट्टी में मिला दी किसने।।
वक़्त की चोट, ज़माने के सितम को सहकर,
मैंने इक हद जो बनाई थी मिटा दी किसने।
मैंने जी भर के अभी चाँद नहीं देखा था,
मेरे अहसास की' बस्ती ये' जला दी किसने।
इश्क के साये से बचकर जो निकलना चाहा
मेरे पीछे से मुझे फिर से' सदा दी किसने।
रूह को छू के तेरी याद दिला जाती हैं
इन हवाओं को क़यामत की अदा दी किसने।
मेरी बर्बादी पे यूं जश्न मनाने वालों,
मेरे ज़ख़्मों को अचानक ये हवा दी किसने।