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Savita Singh

Drama

4.9  

Savita Singh

Drama

बस कुछ यूँ ही

बस कुछ यूँ ही

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सुनो !

चलो, आज चलते हैं,

जहाँ मैं कहूँ।


हाँ, सारे गिले शिकवे,

दुनिया की समस्याएँ

छोड़ देना।


चलते हैं,

नदी किनारे,

जहाँ सीढ़ियों वाला घाट हो।


घाट के किनारे के,

पेड़ों की छाँव, सीढ़ियों पर छाया,

और नदी में डोलती हुई परछाइयाँ।


सिर्फ़,

नदी की कल कल की आवाज़,

हवा की सरसराहट

बीच-बीच में चिड़ियों की चहचहाहट।


या वहाँ,

जहाँ कोई पहाड़ी झरना,

झरने और प्रकृति की आवाज़ और नीरवता।


और ऊँची-नीची पहाड़ी पर,

तुम्हारे हाथों के सहारे,

जहाँ तक पहुँच सके हम,


बैठ जाये,

एक-दूसरे के हाथों को थामे

न तुम कुछ कहो, न मैं कुछ कहूँ।


सिर्फ हाथों की पकड़

और आँखों की भाषा

पढ़ें महसूस करें।


समझे,

तुमने मुझसे क्या कहा,

और मैंने तुमसे क्या कहा ?


तय कर लेते हैं,

किसने, किसको कितना जाना,

है न अच्छी बात ?


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